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Tuesday, 21 June 2011

”मै निर्मोही ”


जब जब मेरे शब्दों ने ,
वाक्यों के अस्तित्व में
अपनी आखरी साँसे ली
तब तब पन्ने का सफ़ेद दामन
काली स्याही ने दागदार किया
शब्दों के अदृश्य घोड़े दौड़ते गये,
हर क्षण पंक्क्तियाँ मरती गयी
इस पंक्तियाँ से उस पंक्तियाँ
अपने अस्तित्व बचाने को दौडती गयी
लिखती गयी; खुद के बिखर जाने का दर्द
”मै निर्मोही” न समझ सकी
अब थक कर बैठी हूँ तो देखती हूँ
पन्ने का पूरा अस्तित्व ही काला है
पन्ने ने अपना अस्तित्व खो कर
शब्दों को अस्तित्व दिया है ;पर
”मै निर्मोही ” ही रही

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